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बाह्य प्राणायाम

प्राणयाम का अभ्यास करने के क्रम में सर्वप्रथम स्थान बाह्य प्राणायाम  का ही आता है।

प्राणायाम सीखने वालों को सबसे पहले बाह्यवृत्ति  प्राणायाम से ही साधना का प्रारम्भ करना चाहिए।

क्या है बाह्य प्राणायाम का अर्थ व परिभाषा

स तु बाह्याभ्यन्तरस्तम्भवृत्तिर्देशकालसँख्याभिः परिदृष्टो दीर्घसूक्ष्मः ।।५०।। – योग दर्शन 2/50

मुनि पतंजलि ने योग दर्शन में साधनपाद के पचासवें सूत्र में चार प्रमुख प्राणायाम का उल्लेख किया है।

उनमें सबसे पहला है बाह्यवृत्ति प्राणायाम। दूसरा आभ्यन्तरवृत्ति प्राणायाम, तीसरा प्राणायाम है स्तंभवृत्ति और चौथा है बाह्याभ्यन्तर विषयाक्षेपी प्राणायाम।

बाह्य का अर्थ है- बाहर, बहिर शब्द का भी यही अर्थ है।

इसलिए इसे बाह्यवृत्ति प्राणायाम के अतिरिक्त बहिर कुम्भक या बहिर प्राणायाम , बाह्य प्राणायाम और बाह्य कुंभक भी कहते हैं।

वर्तमान में इसका एक और नाम ‘रेचक प्राणायाम’ (External Retention) भी चलन में है।

महापुरुषों द्वारा ब्रह्मचर्य से बल, पराक्रम एवं तेज प्राप्त करने की प्रथम सीढ़ी ये बाह्य प्राणायाम ही है।

ये प्राणायाम की विधा अत्यंत प्राचीन वैज्ञानिक एवं मृत्यु को जीतने वाली है।

अर्थात् बिना किसी शारीरिक व मानसिक व्याधी के आत्मा का शरीर से पृथक् होना ही मृत्यु को जीतना है।

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सावधानियाँ

  1. इस प्राणायाम को केवल खाली पेट ही सुबह या शाम को करना चाहिए, अन्यथा व्याधि हो सकती है।
  2. गर्भवती स्त्री को बहिर कुम्भक नहीं करना चाहिए।
  3. स्त्रियों को मासिक धर्म (Menstruation Periods) में इसे नहीं करना चाहिए।
  4. उक्त-रक्तचाप (Hypertension), हृदय रोग (Heart Patient) एवं सांस रोग (Asthama) की स्थिति में ये क्रिया नहीं करनी चाहिए।
  5. पेट के छालों (Gastric Ulcer) में अथवा पेट दर्द (stomachache) में भी रेचक प्राणायाम नही करना चाहिए।
  6. अपनी क्षमता व सामर्थ्य से अधिक बल लगाकर इस प्राणायाम को न करें।
  7. क्रिया को एक बार करने के बाद शरीर को विश्राम देकर ही उसका दोहरान करना चाहिए। अन्यथा भारी क्षति हो सकती है।

बाह्यवृत्ति प्राणायाम कैसे करें

आइए अब समझते हैं क्या है बाह्यवृत्ति  प्राणायाम  करने की विधि। यहां बताई जा रही विधि पूर्ण रूपेण प्रामाणिक है, जिसमें कोई मिलावट नहीं है। मुनि पतंजलि से लेकर ऋषि दयानन्द और प्रोफेसर राममूर्ति सभी ने  बाह्य प्राणायाम का बहुत अभ्यास किया है।  उनकी अभ्यास में लायी हुई विधि इस प्रकार है-

  • सवेरे उठकर शौच, स्नानादि से निवृत हो जाएँ।
  • खुले स्वच्छ हवादार आंगन, चौक, बरामदे में अथवा छत पर आसन बिछाकर बैठ जाएं।
  • सुखासन, स्वस्तिकासन, सिद्धासन, वज्रासन आदि किसी आसन में बैठ जाएँ।
  • पीठ व गर्दन को सीधा रखते हुए सुखपूर्वक बैठ जाएं।
  • नाक से सांस भीतर भरें।
  • दोनों नासिका द्वारों से बलपूर्वक सांस को बाहर फेंकें।
  • ठीक वैसे ही जैसे  वमन (उल्टी) में पेट भोजन को बाहर फेंक देता है।
  • ये कार्य आगे को ओर झुकते हुए करना चाहिए।
  • उससे सांस सहजता से बाहर निकल जाती है और फेंफड़े अधिकतम् मात्रा में रिक्त हो जाते हैं।

बाह्य प्राणायाम की विधि में आगे के निर्देश –

  • बाहर फेंकी गई श्वांस को सामर्थ्य अनुसार बाहर ही रोककर रखें।
  • जितना सहजता से रोक सकें उतना ही रोकें। इस क्रिया को बाह्य कुम्भक (External Retention) कहते हैं।
  • जितनी देर साँस बाहर रोके रखें, उतनी ही देर तक पेट को पीठ की ओर भीतर दबाए रखें।
  • साथ ही अपने गुदाद्वार (Anus) को भी तब तक ऊपर की ओर खींचकर रखें।
  • क्रिया को करते हुए परमात्मा के सर्वोत्तम नाम ओ३म् का जप करें। या ॐ भूः ॐ भुवः ॐ स्वः ॐ महः ॐ जनः ॐ तपः ॐ सत्यम् का जप। या गायत्री मंत्र जपते रहना चाहिए। शीघ्रता से अथवा अत्यधिक बलपूर्वक नहीं करें।
  • ऐसे एक चक्र पूरा हुआ। अब कुछ क्षण साँस की गति को कुछ सामान्य होने दें।
  • उसके पश्चात् इस क्रिया की पुनरावृत्ति (repetition) करें। हर बार ऐसा ही करें।
  • सांस को तीव्रता से भरें और ३ या ४ क्षण भीतर ही रोकें।
  • पुनः नाक से पूरी सांस को एक लय से वमन करने की शैली में बाहर फेंकें।
  • मूलेन्द्रिय का संकुचन करते हुए यथाशक्ति बाहर ही रोककर रखें।
  • इस प्रकार इसी विधि से प्रारम्भ में ३ या ५ बाह्य प्राणायाम तक करने चाहियें।
  • कुछ दिवस बाद जब अच्छा अभ्यास हो जाए तब 21 बार तक कर सकते हैं। इससे अधिक की आवश्यकता नहीं है।
  • किसी भी यौगिक अभ्यास – आसन, प्राणायाम, आदि को करने के पश्चात् ऊर्जा का अनुभव होना चाहिए।
  • किसी प्रकार की थकान अथवा समस्या नहीं होनी चाहिए। यदि ऐसा हो तो समझना चाहिए कि कोई त्रुटि हो रही है।
  • किसी योग्य गुरु का सान्निध्य प्राप्त करना चाहिए।
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बाह्य प्राणायाम के लाभ

  1. शरीर के प्रत्येक भाग में रक्त प्रवाह को बढ़ाकर निम्न-रक्तचाप (Low Blood Pressure) की समस्या को ठीक करता है।
  2. बाह्य प्राणायाम से वीर्य पुष्ट होता है। स्वप्नदोष, धातु -क्षय, आदि रोग दूर होते हैं।
  3. पेट की मांसपेशियों को सशक्त करता है। जिससे तिल्ली (spleen), यकृत (liver) और आंतों की मालिश होती है।
  4. पाचन तंत्र सुधर जाता है।
  5. मन शांत होकर, चित्त वश में होने लगता है। संकल्प शक्ति बढ़ जाती है।
  6. शरीर में शक्ति और स्फूर्ति बढ़ने लगती है। मांसपेशियों में दृढ़ता आ जाती है।
  7. कब्ज़ समाप्त होती है। भोजन का रस बनकर, अंग लगता है। जिससे शरीर का तेज व मुख की कांति बढ़ती है।
  8. हर्निया और मूत्राशय के सभी रोगों में बहुत लाभदायक है। पथरी के रोगी के लिए भी बड़ा उपयोगी है बाह्य प्राणायाम
  9. मधुमेह (diabetes) में बाह्यवृत्ति प्राणायाम को नियमित करने से अग्न्याशय (pancreas) में भरपूर मधुसूदनी (insulin) बनने से रोगी स्वस्थ होता है।
  10. पौरुष ग्रंथि (Prostate Gland) संतुलित, सक्रिय व सक्षम बनती है।
  11. मूत्राशय अथवा मूत्र-विसर्जन में आ रही समस्याओं व मूत्रमार्ग में होने वाले संक्रमण को समाप्त करने में सहयोगी है।

आगे के लेखों में जानें क्या है आभ्यन्तरवृत्ति प्राणायाम, स्तंभवृत्ति और बाह्याभ्यन्तर विषयाक्षेपी प्राणायाम।

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