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बसन्त ऋतु

भारतवर्ष की छः ऋतुओं में सबसे महत्वपूर्ण नाम बसंत ऋतु का है और इसे ही ऋतुराज कहा जाता है।

ये ऋतु सबसे महत्वपूर्ण ऋतु क्यों मानी गयी है?

क्यों वसंत ऋतु को ऋतुराज अर्थात् ऋतुओं का राजा कहा गया है?

इसके पीछे बड़ा ज्ञान-विज्ञान है।

बसन्त ऋतु (Spring Season) पर निबन्ध लिखने को दिए जाते हैं।

बसन्त पंचमी पर उत्सव, कार्यक्रम, आदि में व्याख्यान दिए जाते हैं।

चलिए बसन्त ऋतु के विषय में विस्तार से हर एक जानकारी देकर इसे आपको समझाते हैं।

प्रकृति और ईश्वरीय व्यवस्था

परमात्मा ने सृष्टि को चलाने के लिए विशेष नियम व सिद्धान्त निर्धारित किये।

उन नियम – सिद्धान्तों का निरन्तर क्रियान्वन होता रहने के लिए प्रकृति रूपी संचालन रूपी शक्ति बनाई।

ये प्रकृति अपने छः भिन्न स्वरूपों को छः ऋतुओं के रूप में प्रदर्शित करती है।

सभी छः ऋतुओं का प्रभाव और उनसे घटने वाले परिणाम सब जीव-जन्तुओं पर पड़ते हैं।

ईश्वर की व्यवस्था मनुष्य मात्र हेतु ही नहीं अपितु समस्त संसार के प्रत्येक जीव के लिए स्थापित है।

ईश्वरीय व्यवस्था पूरा-पूरा न्याय करने वाली प्रणाली के द्वारा संचालित है।

इसी से सभी प्राणियों की जीवनचर्या को उनके कर्मानुसार सुख-लाभ अथवा दुख:हानि प्राप्त होते हैं।

बसंत ऋतु

बसंत ऋतु और बसन्त पंचमी कब आती है?

हिन्दी महीनों के अनुसार ‘माघ के महीने में शुक्ल पक्ष की पंचम तिथि’ को बसंत पंचमी कहते हैं।

अंग्रेजी तिथि अनुसार ये या तो फरवरी के अंतिम सप्ताहों के आस पास अथवा मार्च के प्रारम्भ में आती है।

अंग्रेजी महीनों के अनुसार बसंत पंचमी व बसन्त ऋतु की कोई निश्चित तिथि या महीना नहीं बन सकते।

क्योंकि भारतीय पञ्चाङ्ग की गणना सटीक और पूर्ण वैज्ञानिक है परंतु अंग्रेजों की गणना सटीक नहीं है।

यह भी सत्य है कि अनेक वर्षों के शोध व अनुसंधान और प्रयास के पश्चात् ही विदेशी वैज्ञानिकों ने ‘Leap Year’ (लीप ईयर) बनाया।

लीप इयर बनाकर भारतीय पञ्चाङ्ग की भाँति अपना कैलेण्डर बनाया।

जबकि हमारे यहां अरबों वर्ष पूर्व के युग की गणना करना भी सम्भव है।

बसन्त ऋतु का आगमन

भारतीय पंचांग के अनुसार बसन्त ऋतु मुख्यतः चैत्र-वैशाख में मानी जाती है।

परन्तु चैत्र मास की प्रथम तिथि से लगभग 55 दिन पूर्व माघ मास से ही प्रकृति अपनी यौवन अवस्था को प्राप्त करने की तैयारी करने लग जाती है।

वसंत ऋतु का आगमन पृथ्वी के उत्तरी गोलार्ध में लगभग मार्च-अप्रैल के महीने में आता है।

जबकि दक्षिणी गोलार्ध में लगभग सितंबर-अक्टूबर के महीने में होता है।

शिशिर  और हेमन्त  ये उत्तर भारत की ऋतुएँ हैं, विंध्याचल से ऊपर के क्षेत्र की हैं।

विंध्याचल से नीचे के क्षेत्र में शिशिर ऋतु नही होती वहाँ प्रावृड  और वर्षा  ये दो ऋतुएँ होती हैं।

क्योंकि लगभग 1 जून से केरल में मानसून आता है।

मानसून अपनी यात्रा केरल से ही प्रारम्भ करता है और वहीं पर ही समाप्त करता है।

इसलिए विंध्याचल से निचले भू भाग में लंबे समय तक वर्षा होती है।

इसी प्रकार बसंत ऋतु भी समान रूप से नहीं आती है।

जैसे गुजरात और मध्य प्रदेश के मध्य भाग में बसंत ऋतु हरियाणा व राजस्थान से लगभग 10 दिन पूर्व ही आ जाती है।

ऋतु वसंत में व्यावसायिक और शैक्षणिक वातावरण

व्यवसाय के क्षेत्र में पूरे वर्ष के हानि-लाभ का आंकलन व समापन करते हुए नयी योजनाओं का वातावरण बना रहता है।

इसी ऋतु के चैत्र माह के शुक्ल पक्ष की प्रथमा से ही भारतीय नववर्ष, नव संवत्सर और नवरात्रि पर्व का शुभारंभ होता है।

सब बही-खाते बन्द होकर नए बनते हैं।

नए-नए कार्य, व्यवसाय, आदि करने की योजनायें चलने लगती हैं।

विद्यालयों में नए सत्र प्रारम्भ होते हैं और विद्यार्थी व युवा अपने भविष्य के विषय में नया पथ सुनिश्चित करते हैं।

बसन्त ऋतु का मौसम

जैसा कि ऊपर बताया जा चुका है कि बसन्त ऋतु मुख्यतः चैत्र-वैशाख महीनों में ही अपने वास्तविक स्वरूप में होती है।

इस मौसम में न सर्दी लगती है न गर्मी। अर्थात् न तो सर्दी सताती है न ही गर्मी जलाती है।

मौसम बड़ा सुहावना लगता है। सुबह की वायु में एक अनोखी ऊर्जा रहती है।

रात्री के प्रथम प्रहर अर्थात् शाम 6 से 9 तक पुरवाइयाँ सी चलती हैं।

दिन और रात लगभग बराबर से लगते हैं।

उनके छोटे बड़े होने की समय अवधि का पता नहीं चलता।

इस मौसम में सूर्य की ओर मुख करते हुए सूरजमुखी पुष्प, तालाबों में खिलते हुए कमल के पुष्प और फूलों पर भँवरे दिखाई देने लगते हैं।

पौधों व फूलों में परागण (pollination) की प्रक्रिया तेज़ होने लगती है।

स्वास्थ्य की दृष्टि से बसन्त ऋतु का प्रभाव

वसंत आधी शीत और आधी ग्रीष्म ऋतु का प्रभाव लिए करवट बदलती है।

ये सर्दी व गर्मी के सन्धि-काल की ऋतु है।

प्रकृति द्वारा इस व्यवस्था से प्राणी सर्दियों के प्रभाव और अभ्यास से मुक्त होकर गर्मियों में ढलने का अभ्यास करता है।

बसंत में धीमे-धीमे धूप बढ़ने लगती है जिससे प्रकाश संश्लेषण (photosynthesis) की प्रक्रिया तीव्र होने से प्राणवायु (oxygen) की मात्रा बढ़ती है और शरीर की कोशिकाएँ अधिक सक्रिय होती हैं।

इससे प्रसन्नचित् वातावरण लगता है। जबलपुर, मध्य प्रदेश के Government Autonomous Science College के प्रोफेसर एके बाजपई के अनुसार बसंत ऋतु में हमारे शरीर में सिरोटिनिन अंत:स्राव (serotonin hormone) के अधिक सक्रिय होने से प्रसन्नता और उल्लास उत्पन्न होता है।

परंतु परागण (pollination) की प्रक्रिया साँसों के माध्यम से शरीर में प्रत्यूर्जता (allergy) या संक्रमण (infection) का कारण बनती है।

बसंत ऋतु 1

वसंत ऋतु में कौनसे रोग हो सकते हैं?

बसंत ऋतु में हमारे शरीर में जमा हुआ कफ़ सूर्य की किरणें पड़ने से पिघलकर बाहर निकलने लगता है।

इसलिए  जुकाम, खांसी, बुखार, दस्त, उल्टी ये पाँच मित्र रोग हो जाते है।

क्योंकि जीवनी ऊर्जा मानव-देह के भीतर शुद्धि-क्रिया करने लग जाती है।

जिससे शरीर में कुपित कफ़ बाहर निकल सके।

आयुर्वेद के ग्रंथ अष्टाङ्गहृदयम्, चरक संहिता व सुश्रुत संहिता में भी ऋतु वसंत में होने वाले रोग-व्याधियों के बारे में उल्लेख मिलता है।

प्रमुख रूप से बसंत में खांसी, जुकाम, बुखार, उल्टी, दस्त, खुजली, आँखों में जलन, कृमिजन्य विकार, मंदाग्नि, कब्ज़, भारीपन, भोजन में अरुचि, पेट दर्द, आदि जैसे रोग होने की संभावना रहती ही है।

वसंत ऋतुचर्या

कैसी होनी चाहिए वसन्त की ऋतुचर्या ?

स्वास्थ्य की दृष्टि से आयुर्वेद के सभी प्रमुख ग्रन्थों में बसंत ऋतु को शरीर-शुद्धि और कायाकल्प के लिए सबसे महत्वपूर्ण बताया गया है।

हठयोगप्रदीपिका के अध्याय 2 के 11वें श्लोक  में योगाभ्यास प्रारम्भ करने के लिए सबसे उत्तम ऋतु वसंत (Spring season) और शरद ऋतु (Autumn season) बताई गयी है।

इसके अतिरिक्त किसी ऋतु में पहली बार योगाभ्यास प्रारम्भ करते हैं तो रोग-व्याधि उत्पन्न होंगे।

अतः प्रातः सूर्योदय से पूर्व जागकर शौच, दन्त-धावन, स्नान, आदि नित्यकर्मों से निवृत्त होकर अवश्य ही योग-आसन, प्राणायाम, ध्यान, करें।

हल्का व सुपाच्य भोजन करें।

उपवास करके शरीर को निर्मल और निरोग बनाने के लिए ये वसन्त ऋतु बड़ी उपयोगी है।

बसन्त ऋतु में दिनचर्या और खान-पान  पर विस्तार से एक अन्य लेख  में बताया गया है।

बसंत ऋतु में आहार

शरीर में प्रकुपित कफ़ को निकालने हेतु एक घरेलू नुस्खा  अवश्य ही कारगर सिद्ध होगा।

नीम एक चमत्कारी औषधि है ‘।  

मार्च के महीने में नीम की 5-7 कोंपलें लेकर, 2 काली-मिर्च और 1 चम्मच शहद के साथ 15 दिन तक खाली पेट चबाने से रक्त शुद्ध होकर शरीर में बढ़ा हुआ कफ़ नियंत्रित होता है।

कफ़ से होने वाली बीमारियाँ  जैसे – चर्म रोग, मोटापा, फैटी लिवर, ब्लौकेज, थाइराइड, आलस्य, प्रमाद, आदि अनेक रोगों से बचाव होता है।

स्नान के लिए भी पानी गरम करते समय नीम के कुछ 20-25 पत्ते डालकर उबाल लीजिए और फिर उस नीम के पानी  से स्नान कीजिए।

आयुर्वेद के ग्रन्थों  में वमन (vomiting) नामक पञ्चकर्म  सभी प्रकार के कफ़ दोषों कि निवृत्ति करता है।

तो विशेषतः वमन – पंचकर्म  आवश्यक रूप से करें।

वमन-क्रिया  करना या सीखना सरल है।

कृषि और किसान के लिए बसन्त ऋतु

भारत में तीन प्रकार की फसलें उगाई जाती हैं।

एक खरीफ़, दूसरी रबी और तीसरी जायद।

खरीफ़ की फसल में मुख्यत: उर्द, मूंग, अरहर, मोठ, बाजरा, मक्का, ज्वार, तिल, ग्वार, धान, कपास, जूट, सनई, मूँगफली, सोयाबीन, शकरकन्द, गन्ना, भिण्डी, ढेंचा, आदि बोये-काटे जाते हैं।

जून-जुलाई (आषाढ़) में बोयी जाती हैं और अक्टूबर (कार्तिक) में काटी जाती हैं।

खरीफ़ की फसल में  रबी की फसल की बुवाई नवंबर-दिसम्बर (मार्गशीर्ष) में और कटाई मार्च-अप्रैल (चैत्र) अर्थात् बसंत ऋतु में होती हैं।

रबी की फसल में मुख्यतया सरसों, गेहूं, चना, ज्यौ, मटर, आलू, राई, मसूर, लाही, आलसी, जई, बरसीम, हरा चारा, रिजका, सूरजमुखी, आदि हैं।

वहीं इसी वसंत में ही जायद की फसलें बोयी जाती हैं जैसे- खीरा, ककड़ी, तरबूज, खरबूजा, आदि जिनको जून माह में काटा जाता है।

बसन्त पंचमी पर पीले रंग का महत्व

जब बासंती हवाओं का भ्रमण आरंभ होता है तो ये वसंती पवन पीले फूलों की चादर ओढ़े सरसों की फसल को नृत्य कराने लगती है, हल्के पीले रंग की पकी हुई गेहूं की फसल में कंघी करने लगती है।

यही पवन पीले सूरजमुखी पुष्प सूर्य की ओर नम्रता से झुका-झुका कर, मानो अभिवादन करवाती जा रही हो।

यही लक्षण बसन्त पंचमी पर पीले रंग को महत्व व बल देता है। अन्य रंगों का सबका महत्व है।

प्रत्येक रंग किसी भाव को व्यक्त करता है।

परंतु बसंती रंग दो भावों को व्यक्त करता है – ‘एक ब्रह्म शक्ति को और दूसरा क्षात्र शक्ति को’।

ब्रह्म शक्ति को व्यक्त करने के कारण ही पौराणिक जगत् में बसन्त पंचमी पर सरस्वती-पूजा  की जाती है।

पौराणिक जगत् की पूजा-पद्धति  और वैदिक जगत् की पूजा-पद्धति  में अंतर है।

बसन्त पंचमी पर सरस्वती पूजा कैसे करें

सामान्य रूप से पौराणिक पूजा-पद्धति ही चलन में है।

जिसमें माँ सरस्वती के सुंदर चित्र या मूर्ति को पीले पुष्प, वस्त्र, आदि समर्पित करके तिलक करते हुए दीप प्रज्ज्वलन किया जाता है।

वीणा-वादिनी, शारदे माँ आदि नाम से पुकारते हुए प्रार्थना गायी जाती हैं।

और कुछ नृत्य-आदि कार्यक्रम के साथ बौद्धिक आदि भी होते हैं।

परंतु वैदिक पूजा-पद्धति  कुछ भिन्न है और सरस्वती देवी के विषय में वैदिक धर्म को मानने वाले ऋग्वेद के प्रथम मण्डल के तेरहवें सूक्त के नौवें मंत्र इडा सरस्वती मही तिस्रो देवीर्मयोभुव: । बर्हि: सीदनत्वस्रीध: ॥   – ऋग्वेद — 1.13.9 के अनुसार सरस्वती व अन्य 2 देवियों को मानते और पूजते हैं। आगे के लेख में जानिए ऋग्वेद में सरस्वती के अलावा किन दो देवियों के स्वरूप का वर्णन आया है?

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