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Ayurved me vasant ritucharya

आयुर्वेद में वसंत ऋतुचर्या

मार्च-अप्रैल के महीनों में आप आयुर्वेद में वसंत ऋतुचर्या के विधान को धारण कर आरोग्य पाएं।

इस लेख में आप जानेंगे – आयुर्वेद के किस-किस ग्रंथ में वसंत ऋतु के विषय में क्या कहा है?

वास्तव में आयुर्वेद के दृष्टिकोण से बसन्त ऋतुचर्या होती क्या है?

आइए इस लेख के माध्यम से जानते हैं कि आयुर्वेद के तीनों ग्रंथों के अनुसार बसन्त ऋतु में पथ्य-अपथ्य क्या है?

इस वसन्त ऋतु में कैसा आचरण करना चाहिए, आदि बिंदुओं को विस्तार से बताते हैं।

आयुर्वेद में वसंत ऋतुचर्या

वसंत ऋतुचर्या क्या है?

ऐसा माना जाता है कि व्याकरण के विद्वान वसंत शब्द की उत्पत्ति संस्कृत भाषा के ‘वसमता’ शब्द से बताते हैं।

वसंत ऋतु में प्रकृति में घटित प्रकृति के अनुसार ग्रहण करने योग्य दिनचर्या, आहार-विहार के नियम और व्यवहार को ही वसंत ऋतुचर्या कहते हैं।

बसन्त ऋतुचर्या का वर्णन आयुर्वेद के तीनों ग्रन्थों (बृहत्त्रयी) में क्रमशः आया है-

  1. चरक संहिता सूत्रस्थान – 6/22-26
  2. सुश्रुत संहिता सूत्रस्थान – 6/25-28
  3. अष्टांगहृदयम् सूत्रस्थान– 3/18-22

अब आयुर्वेद के बृहत्त्रयी के प्रत्येक ग्रंथ के अनुसार बारी-बारी बसन्त ऋतुचर्या को विस्तार से बताते हैं।

चरक संहिता अनुसार आयुर्वेद में वसंत ऋतुचर्या

आयुर्वेद के सबसे प्राचीन ग्रंथ ‘चरक संहिता’ के सूत्रस्थान में ‘तस्याशितीय’ नामक छठा अध्याय है।

इस अध्याय के 22वें श्लोक से 26वें श्लोक तक ऋषि चरक  द्वारा वसंत ऋतु के अनुसार दिनचर्या का उल्लेख मिलता है।

वसन्ते निचितः श्लेष्मा दिनकृद्भाभिरीरितः ।

कायाग्निं बाधते रोगांस्ततः प्रकुरुते बहून् ।।२२।।

तस्माद्वसन्ते कर्माणि वमनादीनि कारयेत्।

गुर्वम्लस्निग्धमधुरं दिवास्वप्नं च  वर्जयेत् ।।२३।।

व्यायामोद्वर्तनं धूमं कवलग्रहमञ्जनम् ।

सुखाम्बुना शौचविधिं.शीलयेत्कुसुमागमे ।।२४।।

चन्दनागुरुदिग्धाङ्गो यवगोधूमभोजनः ।

शारभं शाशमैणेयं मांसं लावकपिञ्जलम् ।।२५।।

भक्षयेन्निगदं सीधुं पिबेन्माध्वीकमेव वा ।

वसन्तेSनुभवेत्स्रीणां काननानां च यौवनम् ।।२६।। – (चरक संहिता सूत्रस्थान – ६/२२/२६)

ऋतुचर्या –

वसन्ते निचितः श्लेष्मा दिनकृद्भाभिरीरितः ।

कायाग्निं बाधते रोगांस्ततः प्रकुरुते बहून् ।।

हेमन्त और शिशिर ऋतुओं में शरीर में संचित किया हुआ कफ सूर्य की किरणों से प्रेरित हो घी के समान पिघलने लगता है।

यही कफ फिर द्रवीभूत होकर अर्थात् द्रव्य बनकर शरीर की अग्नि को कम करता है।

यहां केवल जठर की अग्नि (जठराग्नि) कम होने की बात कही है।

धातुओं की अग्नि को कम करने की बात नहीं कि गयी है।

मन्दाग्नि होने से अनेक प्रकार के रोग उत्पन्न होते हैं।

तस्माद्वसन्ते कर्माणि वमनादीनि कारयेत्।    (23वें श्लोक का प्रथम पद)

इसलिए उस संचित कफ को बाहर निकालने के लिए वसन्त ऋतु में वमन, शिरोविरेचन, आदि पंचकर्म करने चाहिए।

वर्जित आहारविहार

गुर्वम्ल-स्निग्ध-मधुरं दिवास्वप्नं च  वर्जयेत् ।।२३।। 

वसन्त ऋतु में गुरु, अम्ल, स्निग्ध एवं मधुर आहार तथा दिन में शयन नहीं करना चाहिए।

सेवनीय आहार विहार

व्यायाम, उबटन, धूमपान, कवल (गरारे करना) और अञ्जन लगाना चाहिए।

शौच एवं स्नान कार्य में गरम पानी का व्यवहार करना चाहिए।

पीने में गर्म पानी का प्रयोग न करके सामान्य तापमान वाला पानी ही पीना चाहिए।

हाँ, दिनभर में 2-3 बार मल-मूत्र त्याग के पश्चात् गुनगुने जल को पियें ।

शरीर पर चन्दन और अगर का लेप लगाना चाहिए।

जौ (यव) और गेहूं खाना चाहिए।

शरभ(एक प्रकार की हिरण प्रजाति), बारासिंगा, खरगोश, हिरण, बटेर, कपिञ्जल (कट फोड़ा) व सफेद तीतर के मांस का सेवन करना चाहिए।

निर्गद (शुद्ध/दोषरहित) कफ दोष नाशक सीधु (मीठे रस की शराब ) या  अंगूरों की बनी शराब पीनी चाहिए। इसके अतिरिक्त माध्वीक-महुर(महुआ) की मदिरा या दाख की मदिरा पीनी चाहिए।

वसन्त काल में स्त्रियों और उपवनों के यौवन का अनुभव करना चाहिए।

विमर्श

वसन्त ऋतु में शरीर शुद्धि हेतु वमनादि पंचकर्म का विधान बताया है।

यूं तो वसन्त चैत्र-वैशाख में मानी जाती है।

परन्तु, शोधन कर्म (वमन, विरेचन, आदि) के लिए वसन्त ऋतु से फाल्गुन और चैत्र माह का तात्पर्य लेना चाहिए।

यथा- ‘तपस्यश्च मधुश्चैव वसन्त: शोधनं प्रति’ (सि. ६)।

पुराने जौ-गेहूँ लेने चाहिए, क्योंकि पुराने जौ-गेहूं मधुर होते हुए भी कफकारक नहीं होते, यथा- ‘प्रायो मधुरं श्लेष्मलमन्यत्र मधुन: पुराणयवगोधूमात्’ (सू. २५)।

चक्रपाणि के अनुसार ‘स्त्रियों की युवावस्था और पुष्पवाटिक के सुन्दर फूलों का अनुभव करने से ये तात्त्पर्य है कि इनका सेवन अधिक नहीं करना चाहिए।

केवल जितने विहार करने से कफ का क्षयः हो जाए उतना से ही करें।

आयुर्वेद में हर प्रयोग और विधि बहुत शोध करके केवल स्वस्थ और सुखी जीवन के हेतु से वर्णित की गई है।

इसे समझने के लिए योग्य व्याकरण के और आयुर्वेद के आचार्यों व वैद्यों का सान्निध्य अत्यंत आवश्यक है।

सुश्रुत संहिता के अनुसार आयुर्वेद में वसन्त ऋतुचर्या

ऋषि सुश्रुत  ने सुश्रुत संहिता के सूत्रस्थान के छठे अध्याय के 25,26,27, और 28वें श्लोक में बसंत ऋतु के विषय में ये कहा है-

सिद्धविद्याधरवधूचरणालक्तकाङ्किते |

मलये चन्दनलतापरिष्वङ्गाधिवासिते ||२५||

वाति कामिजनानन्दजननोऽनङ्गदीपनः |

दम्पत्योर्मानभिदुरो वसन्ते दक्षिणोऽनिलः ||२६||

दिशो वसन्ते विमलाः काननैरुपशोभिताः |

किंशुकाम्भोजबकुलचूताशोकादिपुष्पितैः ||२७||

कोकिलाषट्पदगणैरुपगीता मनोहराः |

दक्षिणानिलसंवीताः सुमुखाः पल्लवोज्ज्वलाः ||२८||


भावार्थ

यहां ऋषि सुश्रुत का रसिकत्व और कवित्व उभर कर परिलक्षित हुआ है।

यहाँ उन्होंने प्रकृति के सौंदर्य का वर्णन करते हुए पर्वतों पर चढ़ी हुई लताओं और कामुकता उत्पन्न करने वाली पवन को दर्शाया है।

वसन्त ऋतु में सिद्ध तथा विद्याधरों की वधुओं के चरणों में लगे हुए अलक्तक (माहोर या लाक्षारस) से अंकित मलय गिरी के ऊपर चन्दन पर चढ़ी हुई चमेली-मालती आदि लताओं के आलिंगन (अत्यंत संपर्क) से सुवासित, कामीजनों को आनन्द देने वाली, अनंग (कामदेव) को दीप्त करने वाली तथा स्त्री और पुरुषों के परस्पर मान का भेदक मलयगिरि की दक्षिण वायु चलती है।

इनके अतिरिक्त वसन्त ऋतु में सब दिशाएं निर्मल, वन उपवनों से शोभायमान, किंशुक (पलाश), अम्बोज (कमल), बकुल (मौलश्री), चूत (आम्र) और अशोक इत्यादि वृक्षों के पुष्पों से शोभित तथा चारों ओर कोकिला और भ्रमरों के समूह के गुँजन (गीत) से मनोहर, दक्षिण दिशा की वायु से व्याप्त तथा अनेक नये-नये, भूरे लाल कोमल पल्लवों (नए पत्तों) से शोभित होती है।

अष्टांगहृदयम् के अनुसार आयुर्वेद में वसन्त ऋतुचर्या

कफश्चितो हि शरीरे वसन्तेsर्कांशुतापितः । हत्वाsग्निं कुरुते रोगानतस्तं त्वरया जयेत् ।।१८।।

तीक्ष्णैर्वमननस्याद्यैर्लघुरूक्षैश्च भोजनैः । व्यायामोद्वर्तनाघातैर्जित्वा श्लेष्माणमुल्बणम्।।१९।।

स्नातोsनुलिप्त: कर्पूरचन्दनागुरुकुङ्कुमैः। पुराणयवगोधूमक्षौद्रजाङ्गलशूल्यभुक्।।२०।।

सहकाररसोन्मिश्रानास्वाद्य प्रिययाsर्पितान्। प्रियास्यसङ्गसुरभीन् प्रियानेत्रोत्पलाङ्कितान् ।।२१।।

सौमनस्यकृतो हृद्यान्वयस्यैः सहितः पिबेत्। निर्गदानासवारिष्टसीधुमार्द्वीकमाधवान्।।२२।।

श्रृ्ङ्गेबेराम्बु साराम्बु मध्वम्बु जलदाम्बु च ।

भावार्थ –

शिशिर ऋतु में शीत की अधिकता के कारण स्वाभाविक रूप से कफदोष का संचय हो जाता है। वह कफदोष वसन्त ऋतु में सूर्य की किरणों से संतप्त होकर पिघलने लगता है, जिसके कारण पाचकाग्नि मन्द पड़ कर अनेक प्रकार के (प्रतिशाय आदि) रोगों को उत्पन्न कर देता है।

अतः इस ऋतु में उस कफदोष को शीघ्र निकालने का प्रयत्न करें।

वमन तथा रुक्ष नस्यों के प्रयोग से इसका निर्हरण करे।

अन्यत्र कहा भी है- ‘हेमन्ते चीयते श्लेष्मा वसन्ते च प्रकुप्यति’ । यहाँ हेमन्त शब्द के साहचर्य से शिशिर ऋतु में संचित कफदोष का प्रकोप वसन्त ऋतु में होता है। इसलिए कफदोष को निकालने के लिए तीक्ष्ण वमनकारक द्रव्यों द्वारा वमन कराएं और तीक्ष्ण एवं रुक्ष औषधों का प्रतिदिन नस्य लें। लघु (शीघ्र पचने वाले) तथा रुक्ष (स्नेहरहित) भोजन करें। व्यायाम, उद्वर्तन (उबटन), आघात (दण्ड-बैठक) का प्रयोग करें और कराएं, जिससे बढ़ा हुआ कफदोष शांत हो जाए (अन्यत्र इस ऋतुचर्या में धूमपान, कवलग्रह का भी विधान है)।

उसके बाद स्नान करें, फिर कर्पूर, अगर, चंदन, कुंकुम का शरीर में अनुलेप लगाएं।

भोजन में पुराने जौ, गेहूं की रोटी आदि बनाकर खाएं।

मधु का सेवन करें।

जांगल देश के प्राणियों के मांस के बड़े बनवाकर खाएं, जो लोहे की शलाका में पिरोकर पकाए जाते हैं, अतएव इन्हें शूल्य कहा जाता है।

पानविधि

पके हुए आम का रस निकालकर जिसे पहले प्रियतमा ने चखकर अपने प्रियतम को दिया हो प्रिया के मुख की गंध से सुरभित जिसपर प्रिया के नयन कमलों की छाया पड़ रही हो जो मन को प्रिय लगने वाला हो हृदय को शक्ति देने वाला हो ऐसे आम के रस का मित्र मंडली के साथ पालन करें ध्यान रहे इन मित्रों के साथ साथ पत्नी भी अवश्य रहें नहीं तो ‘प्रियानेत्रोत्तपलाङ्कितान्’ यह विशेषण व्यर्थ हो जाएगा।

दोष रहित आसव, अरिष्ट, सीधु व मुनक्का द्वारा निर्मित सुरा अर्थात मदिरा तथा महुआ के आसव का सेवन भी मित्रों के साथ बैठकर उचित मात्रा में करें।

अदरक का पानी, विजयसार तथा चंदन का जल, मधु मिश्रित जल और नागरमोथा का क्वथित जल इनका भी सेवन करें।

वक्तव्य

ऊपर जो विस्तृत खानपान व्यवस्था बतलाई है, इसका उद्देश्य यह है कि जिसे जो रुचिकर तथा प्रिय हो उसका वह सेवन करे।

अदरक का पानी आदि सभी का क्वाथ करले मध्वम्बु को केवल जल में घोलकर लें।

मध्याह्नचर्या

दक्षिणानिलशीतेषु परितो जलवाहिषु ।।२३।।

अदृष्टनष्टसूर्येषु मणिकुट्टीमकान्तिषु। परिपुष्टविघुष्टेषु कामकर्मान्तभूमिषु।।२४।।

विचित्रपुष्पवृक्षेषु काननेषु सुगन्धिषु। गोष्ठीकथाभिश्चित्राभिर्मध्याह्नं गमयेत्सुखी।।२५।।

भावार्थ –

दोपहर के समय में, मलयज पवन अर्थात् दक्षिण दिशा की वायु से शीतल व सुगन्धित ऐसे घने वनों में जहां सूर्य का प्रकाश न के बराबर पड़ रहा हो, जहां हीरे – मरकत आदि का फर्श बने हों, जहां कोयलें कूक रहीं हों, सहवास करने योग्य स्थानों में जहाँ विविध प्रकार के सुगन्धित पुष्पों के वृक्ष और लताएं हों, ऐसे वन-उद्यानों में सुख के अभिलाषी पुरुष मित्रमण्डली की कथा-सुभाषित युक्त सभाओं में समय व्यतीत करना चाहिए।

त्याज्य आहार अपथ्य

अष्टांग हृदय सूत्रस्थान के अध्याय 3 के 26वें श्लोक की आधी पंक्ति में ऋषि वाग्भट्ट ने वसन्त ऋतु में अपथ्य के बारे में बताया है।

शेष आधी पंक्ति में ग्रीष्म ऋतु का वर्णन प्रारम्भ कर दिया।

गुरुशीतदिवास्वप्नस्निग्धाम्लमधुरांस्त्यजेत् ।   – (26वें.श्लोक की पहला पद)

इस ऋतु में गुरु (देर से पचने वाले भक्ष्य पदार्थ), शीतल पदार्थ, दिन में सोना, स्निग्ध (घी, तेल से बने हुए खाद्य) पदार्थों, अम्ल तथा मधुर रस-प्रधान पदार्थों का सेवन न करें, क्योंकि ये सभी कफवर्धक होते हैं।

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