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Dharm kya hai

धर्म क्या है

धर्म शब्द के सुनने मात्र से ही धर्म क्या है ये विचार मन को घेर ही लेता है।

इस एक धर्म शब्द के विषय में संप्रदाय, मजहब व अन्य मत पंथी कुछ न कुछ विचार रखते हैं।

किसी के यहाँ गुरु ने कुछ बताया और लिखा है, किसी अन्य मत-पंथ में कुछ और।

इस लेख में आपको संतोषजनक जानकारी के साथ – साथ ‘धर्म’ शब्द की संस्कृत व्याकरण के अनुसार अर्थ, परिभाषा बताएँगे।

इसका व्यावहारिक भावार्थ भी समझाएँगे और सप्रमाण सिद्ध भी करके बताएँगे।

परंतु उससे पूर्व कुछ आवश्यक बिन्दु को समझ लें।

जिससे आगे के विषय बिन्दु को आप क्रमशः सहज रूप से समझ सकेंगे।

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धर्म क्या है इसके प्रति इतनी जिज्ञासा क्यों?

हमारे आर्यवर्तीय भारतवर्ष में सृष्टि के प्रारम्भ से ही ऋषि परंपरा रही है।

ऋषियों ने मनुष्य जीवन के रहस्यों को खोला है। क्यों खोला?

क्योंकि जब मनुष्य संसार में आँखें खोलता है तो तीन वस्तुएं स्वतः ही सिद्ध हो जाती हैं ।

सर्वप्रथम ‘दृश्य’ – जो दिख रहा है, द्वितीय – ‘दृष्टा’ – जो देख रहा है और तृतीय – ‘दर्शन’ – जो अनुभव कर रहा है।

इन में जो अनुभव करने वाला है वो ‘चेतन’ है।

चेतन अर्थात् विचारवान है।

वो इस संसार को देखकर विचार करता है, “मैं इस संसार में क्यों आया?

” एक जिज्ञासा जागृत होती है कि मेरे इस जीवन का कारण व उद्देश्य क्या है?

मेरे इस शरीर का कारण व उद्देश्य क्या है?

वो लक्ष्य क्या है जिसे मुझे पाना है।

इस पर हमारे ऋषियों ने वर्षों तक मंथन किया।

मंथन करने के पश्चात् जीवन के उद्देश्य के विषय में बड़ा स्पष्ट वर्णन किया और जन-जन तक पहुंचाया।

ऋषि कौन होता है

पढ़ते हुए ये प्रश्न भी उठा ही होगा कि वास्तव में ऋषि कौन होता है और क्या होता है? इस विषय पर किसी अन्य लेख में विस्तार से बताएँगे। अभी ऋषि के बारे में इतना जान लीजिए कि ऋषि सदैव परमेश्वर के बताए वेदोक्त निर्देशानुसार, वैदिक नियम सिद्धांतों से जीवन भर सत्यपथ पर चलते हुए, अपने समाज व राष्ट्र को सुखी समृद्ध बनाते हुए, उसे ईश्वर की ओर अग्रसर करते रहने का कार्य करता है। एक ऋषि ज्ञान, विज्ञान, साहित्य, व्याकरण, का जानकार होने के साथ ही चिकित्सक, वैज्ञानिक, कवि, लेखक, राजनीतिज्ञ, कूटनीतिज्ञ, दार्शनिक व उपदेशक  भी हो सकता है। हमारे ऋषियों ने ही सर्वप्रथम धर्म क्या है इसको जानने पर प्रकाश डाला। यदि अप जानना चाहते हैं की वेद के अनुसार, उपनिषदों के अनुसार, शड्दर्शनों के अनुसार व तार्किक और व्यावहारिक रूप से धर्म की वास्तविक परिभाषा क्या है तो आपको बताते हैं आप क्या करें।

धर्म क्यों आवश्यक है?

समान्यतः अथवा अधिकांशतः हमारे मन में धर्म को लेकर सबसे पहला प्रश्न यह उठता है कि ‘धर्म क्या है ?

परंतु ये क्रम ही अनुचित है।

सर्वप्रथम प्रश्न ये उठना चाहिए कि धर्म की जरूरत क्या है?

धर्म की आवश्यकता क्यों और कब कब पड़ती है?

हम धर्म के पथ पर क्यों चलें?

ऐसी कौनसी बड़ी आवश्यकता है कि धर्म इतना आवश्यक बताया गया है?

आपको इन प्रश्नों के उत्तर के साथ ही इसकी एक ऐसी परिभाषा बताते हैं जो मन में धर्म को जानने की अभिलाषा को जागृत करे।

जिससे धर्म का विषय सत्य-स्वरूप में स्पष्ट हो जाए।

सबसे पहले ये समझिये कि धर्म इसलिए जरूरी है क्योंकि धर्म हमें सुखी करता है।

सुखस्य मूलं धर्म:” (चाणक्यसूत्र-१) अर्थात् धर्म ही सुख का मूल है, आधार है।

बिना धर्म के सुख सम्भव नहीं है।

प्रत्येक जीवात्मा इस जीवन में शत-प्रतिशत सुख ही सुख चाहता है।

परंतु वह इच्छा-अनिच्छा से धर्म विरुद्ध अथवा अधर्म का आचरण करता रहता है और दुखी होता रहता है।

तब वह क्षण-क्षण यही सोचता है कि वह ऐसा क्या करे कि प्रतिपल सुखी बना रहे।

परमेश्वर की वेद वाणी एवं हमारे ऋषियों के द्वारा वर्षों तक किए तप, स्वाध्याय, गहन शोध एवं अनुसंधान के आधार पर जो जीवात्मा है उसका लक्ष्य ‘मोक्ष’ को प्राप्त करना है।

इसलिए पुरुष का उद्देश्य, जीवात्म का उद्देश्य बताया गया – धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष

मोक्ष प्राप्ति का सरप्रथम चरण है – धर्म।

मोक्ष को धर्म, अर्थ, और काम के द्वारा प्राप्त किया जा सकता है।

जो व्यक्ति जितना जितना धार्मिक होगा अर्थात् धर्म के मार्ग पर चलकर ही कर्म करेगा उसे उतना उतना सुख मिलेगा।

और जाने अनजाने में जिसने जितना अधर्म कर दिया होगा अर्थात् धर्म विरुद्ध आचरण किया होगा उसे उतना दुख भी अवश्य मिलेगा।

परमेश्वर के न्याय – सिद्धान्त कि व्यवस्था में कर्मों के अनुसार फल-परिणाम अवश्य ही मिलते हैं।

कोई क्षमा नहीं मिलती अपनी गलतियों के लिए। चाहे इसमें आप कहीं से भी कोई तरीका ढूंढो और कहो, “मुझसे अधर्म हो गया है तो अब बचा जा सकता है क्या?

उत्तर होगा – नहीं, क्योंकि परमात्मा दण्ड अवश्य देते हैं। सर्वप्रथम धर्म हमें ये समझाता है कि अधर्म करने पर दुख एवं दण्ड अवश्यमेव प्राप्त होंगे ही।

पहले स्वयं को समझाओ, फिर संपर्क में आने वालों को जागरूक करो, और धर्म के उद्देश्य व अर्थ को समझाओ।

चाहे कोई धनवान हो, बलवान हो, विद्यावान हो और अधर्म कर दिया हो।

और सोचे कि मैंने इतने पुण्य किए हैं पहले अब तो मुझे दंड नहीं मिलेगा।

कोई चालाक व्यक्ति सोचे कि मैं तो बलवान हो गया हूँ बुद्धि और धन से सब ठीक कर दूंगा।

तो उसे ये ध्यान करने कि आवश्यकता है कि ये व्यवस्था परमेश्वर की है।

और किसी के भी वश के बाहर है।

अतः धर्म को जानना हम सभी के लिए अत्यंत आवश्यक है।

वो हमें दुख उत्पन्न करने वाले कर्मों से बचना सिखाता है।

परमेश्वर की बनाई प्रकृति और उसकी व्यवस्था अटल है

परमेश्वर की इस सृष्टि में जो भी व्यवस्था है वो निरंतर क्रियान्वित् है और उस पर परमात्मा के अतिरिक्त किसी का भी वश नहीं चल सकता। एक उदाहरण से समझते हैं। एक बार किसी मोहल्ले में सरकार ने सड़क निर्माण का कार्य करवाया। जब सड़क बनी तो घरों की फर्श से कुछ ऊंची हो गयी। वर्षा ऋतु में जब वर्षा हुई तो सड़क से बारिश का पानी घरों में भरने लगा। इस पर एक घर में पत्नी ने अपनए पति को सुनाते हुए सरकर पर तंज़ कसा की कैसी अव्यवस्थित और अनुचित रीति से सड़क बनाई गयी है कि सार पानी घरों में भर रहा है। तब पति ने कहा कि सड़क के लिए तो सरकर को दोष दे दिया तुमने परंतु ये जो पानी बरस रहा है इसमें किसका दोष है? ये तो परमेश्वर कि व्यवस्था से है, यदि सरकर ने पानी सड़क पर छुड़वाया होता तो अब तक जाने कितना कुछ आंदोलन हो चुका होता। परंतु सब चुपचाप घरों में पानी भरता देख रहे हैं, कुछ नहीं कर पा रहे क्योंकि बरसात परमेश्वर की व्यवस्था से हो रही है। उस पर किसी का वश नहीं है। वैसे ही सुख दुख भी बोलो परमेश्वर की व्यवस्था है। आप प्रदूषण करके बरसात को अव्यवस्थित तो कर सकते हो। अत्यधिक प्रदूषण हुआ तो उस क्षेत्र में असमय अथवा बेमौसम बरसात हो जाएगी जो दुख व रोगों का कारण बनेगी। बरसात बेमौसम ही हुई हो लेकिन हुई है ईश्वर कि व्यवस्था से ही। ये बेमौसम बरसात उस क्षेत्र के मनुष्यों को वायुमंडल में प्रदूषण फैलाने के लिए दण्ड है। जिसे धर्म का भान होगा वो प्रदूषण नहीं करेगा अथवा कम से कम प्रदूषण करेगा और फिर यज्ञ करके वातावरण को पुनीत करेगा।

धर्म क्या है ?

धर्म के विषय में बहुत भ्रांतियाँ हैं। धर्म का नाम कानों में पड़ा और तुरंत बहुत सारे शब्द इसके साथ जुड़ जाते हैं। हिंदू धर्म, मुस्लिम धर्म, ईसाई  धर्म, सिख धर्म। ये सारे मत हैं, पंथ हैं, संप्रदाय हैं धर्म कोई भी नहीं। केवल धर्म शब्द ऐसा है जिसका विश्व की किसी भी भाषा के शब्दकोश में कोई भी पर्यायवाची नहीं है। धर्म शब्द का किसी भी भाषा में अर्थ करने वाला कोई शब्द नहीं। अंग्रेजी में इसको रिलिजन(religion) कहते हैं। लेकिन रिलिजन(religion) का अर्थ अलग है धर्म का अर्थ अलग है। रिलिजन कहते हैं जो गतिशील है, धर्म कहते हैं जो धारण किया जा रहा है – ‘धारणात् धर्म इत्याहु:’ । दोनों का अर्थ भिन्न है। अंतत: धर्म है क्या ? परंतु उससे पूर्व एक और बिन्दु को जानना आवश्यक है, तभी धर्म को जान पाना और समझ पाना सरल और सहज होगा। हमें पहले यह जानना चाहिए कि अन्त पन्त धर्म को जानना आवश्यक क्यों है? क्यों धर्म को जीवन में धरण करना आवश्यक है ? ऐसा क्या है धर्म में जो हम सभी मनुष्यों के लिए हानी-लाभ का विषय बनाए हुए है?

जानिए धर्म के अर्थ, परिभाषा व भावार्थ

संस्कृत व्याकरण के अनुसार धर्म शब्द ‘धृञ धातु के साथ ‘मन्’ प्रत्यय लगने से बना है।

धृ का अर्थ होता है धारण करना और मन का अर्थ हुआ मनन करना, मानना, महत्वपूर्ण समझना।

व्याकरण के आचार्यों ने धर्म की दो परिभाषाएँ दीं।

धर्म की पहली परिभाषा ‘धृयते अनेन लोक:’ अर्थात् जिससे इस सम्पूर्ण सृष्टि की व्यवस्था को चलाया जा रहा है, धारण किया हुआ है उस नियम का नाम है – ‘धर्म’। इस श्लोक में लोक शब्द का अर्थ सम्पूर्ण सृष्टि किया गया है। यहाँ नियम को धर्म बताया गया है। सारे लोक-लोकांतर, गृह, प्रकृति आदि सब अपने-अपने नियम से अनवरत चल रहे हैं, वनस्पति, नक्षत्र, समुद्र, अग्नि, वायु, आदि पंचतत्व जिन नियमों से अपने अपने कर्तव्यों से चल रहे हैं, ये नियम ही धर्म है।

धर्म की दूसरी परिभाषा – ‘धारणात् धर्म इत्याहु:’ अर्थात् जैसे लोक-लोकांतरों में गृह, नक्षत्र, समुद्र, पंचतत्व,आदि ने नियमों को धारण कर रखा है, वैसे ही हम लोग भी नियमों को धारण करते हुए जीवन व्यतीत करें, ये नियमों का धारण ही वास्तव में ‘धर्म’ है।

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महात्मा व आचार्यों द्वारा धर्म की परिभाषा

धर्म के विषय में महात्मा चाणक्य ने भी चाणक्यसूत्र-234 में कहा है – ‘धर्मेण धार्यते लोक:’ अर्थात् लोक विधारक सत्य रूपी मानव-धर्म ही मानव-समाज का संरक्षक है। चाणक्य ने ही अपने अगले सूत्र-235 में कहा – ‘प्रेतमपि धर्माधर्मावनुगच्छत:’ अर्थात् मनुष्य के किए धर्म-अधर्म उसकी देह के अन्त हो जाने पर भी नष्ट नहीं होते। चाणक्य के अतिरिक्त असंख्य ऋषि-मुनियों और विद्वान बड़े आचार्यों ने भी धर्म के विषय में बहुत कुछ तार्किक कहा है। ऋषि दयानंद जी महाराज ने भी धर्म के विषय में कहा है- “सत्य का धारण ही धर्म है। अर्थात् सत्य को आचरण में लाना ही धर्म है। और एक संस्कृत के विद्वान शिक्षक ने संस्कृत में पढ़ाते समय इतनी विवेकशील बात कही है कि जिसमें से कुछ भी काटा छांटा नहीं जा सकता।  उन्होंने कहा- “विद्या ददाति विनयं विनयात् याति पात्रताम् । पात्रत्वात् धनमाप्नोति धनात् धर्मं ततः सुखम् ॥”

विद्या ददाति विनयं विनयात् याति पात्रताम् । पात्रत्वात् धनमाप्नोति धनात् धर्मं ततः सुखम् ॥

विद्या से विनय मिलता है। विनय के बाद पात्रता मिलती है।

पात्रता अर्थात् योग्यता।

योग्यता के बाद धन, धन के बाद धर्म और धर्म के बाद सुख प्राप्त होता है।

विद्या हमें प्राप्त होने वाली सभी वस्तुओं का आधार है।

विद्या अर्जित करके जो चाहे प्राप्त किया जा सकता है।

क्योंकि विद्या से योग्यता बन जाती है, सामर्थ्य बन जाता है कुछ भी प्राप्त करने का।

मनुष्य को जो कुछ भी चाहिए अन्न, वस्त्र, भवन, संसाधन, मान, प्रातिष्ठा, आदि सब विद्यावान को प्राप्त हो जाता है।

जो विद्यार्थी जितना विनम्र होगा, विनयशील होगा वह उतना ही योग्य बनेगा, एवं जितना उद्दंडी होगा उतना ही अयोग्य बनेगा।

जो जितना विद्यावान है वो उतना ही विनयशील होता जाएगा और जो जितना विनयशील होगा उतना ही धनवान बनेगा, जितना धनवान बनेगा उतना ही सुख बढ़ेगा जीवन में।

सुख का आधार धर्म है। जितना धर्म करोगे उतना सुख मिल जाएगा।

और समस्त आप यहाँ ध्यान से पढ़ें और देखें कि धर्म और सुख के बीच में धर्म को लगा दिया है।

यदि व्यवहारिक जीवन में भी देखा जाए तो केवल धन होने से संसार में कोई भी सुखी नही हो सकता है।

और धन भी ऐसा हो जो धर्म से अर्जित किया गया हो, यदि कुरीति, अन्याय व अधर्म से धनोपार्जन किया जाएगा तो जीवन में दुख और क्लेश प्राप्त होंगे ही होंगे।

धर्म को जानना है तो ये ग्रंथ अवश्य पढ़िये

महर्षि स्वामी दयानंद सरस्वती ऐसे अनूठे ऋषि हुए जिन्होंने इस समस्त प्राणी मात्र के कल्याणार्थ एक अद्भुत् ग्रंथ लिखा। मनुष्यों के कल्याण पर केवल मनुष्यों का कल्याण ही निर्भर नहीं होता अपितु जितने भी संसार में पशु, पक्षी एवं प्राणी व्याप्त हैं सभी का कल्याण निहित है। महर्षि दयानन्द ने सबके कल्याण के लिए एक ग्रंथ की रचना की , उसका नाम रखा ‘सत्यार्थ प्रकाश’ – सत्य अर्थ का प्रकाश। ये सत्यार्थ प्रकाश क्या है ये भी हमारे एक लेख में विस्तार से बताया गया है। मनुष्य अपने जीवन में लक्ष्य की प्राप्ति कैसे करे? धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इनकी सिद्धि किस प्रकार से करे? इन सभी के उपाय और मार्ग इस अनूठे ग्रंथ सत्यार्थप्रकाश में ऋषि ने लिखकर बताएं हैं।

एक ग्रंथ जो वैदिक धर्म को संक्षेप में समझाता है

कई लोग सत्यार्थ प्रकाश के विषय में भ्रांतियां पाले हुए हैं। कुछ लोग कहते हैं कि सत्यार्थ प्रकाश में खंडन मंडन के सिवा कुछ है ही नहीं। कुछ लोग कहते हैं कि सत्यार्थ प्रकाश में केवल आलोचना की गई हैं। यथार्थ है कि उन लोगों ने सत्यार्थ प्रकाश को कभी खोलकर पढ़ा भी नहीं। यदि पढ़ा होता तो यह भ्रम न होता है? सभी भ्रांतियाँ नष्ट हो गई होतीं। दयानन्द सरस्वती ने सत्यार्थ प्रकाश की भूमिका में बड़ा स्पष्ट लिखा है, “इस ग्रंथ को लिखने का मेरा उद्देश्य शत प्रतिशत सत्य अर्थ का प्रकाश अर्थात जैसा मेरी आत्मा में वैसा का वैसा ही कहना इस ग्रंथ को लिखने का मेरा उद्देश्य है। किसी के मन को दुखाना मेरा उद्देश्य नहीं। किसी को खरी खोटी सुनाना इस ग्रंथ को लिखने का मेरा उद्देश्य नहीं है। जो सत्य है। वही लिखना, वही बताना।“ क्यों? क्योंकि मोक्ष की प्राप्ति की सबसे पहली सीढ़ी बताई गयी है – धर्म।

आगे अन्य लेखों के माध्यम से धर्म के लक्षण के साथ – साथ किस किस ग्रंथ में किस किस ऋषि व आचार्यों ने धर्म के अर्थ व परिभाषाओं को किस प्रकार कहा और समझाया है ये आप तक लाएँगे।

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